
बात अस्सी के दशक की है। टाइम्स आई रिसर्च फाउंडेशन के माध्यम से भारतीय डाक तार विभाग ने नेत्र दान विषय पर डाक टिकिट जारी करने के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की थी। इस तरह के सामाजिक अभियानों में मेरी आस्था ने मुझे इस पहल में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। मेरी कल्पना ने एक उड़ान भरी और मैं डाक टिकिट के लिए एक नमूना बनाने जुट गया। जल्दी ही मैंने अपनी प्रविष्टि टाइम्स आई फाउंडेशन को भेज दी।
दो शब्द मेरी प्रविष्टि के बारे में…

एक तरफ मैंने एक मानवीय चेहरे का रेखाचित्र बनाया था जिसमें आँख की जगह रिक्त (सफ़ेद) स्थान छोड़ा था जो कि अंधापन दर्शा रहा था। दूसरी तरफ मैंने एक हथेली बनाई थी जिसकी मुद्रा भगवानों की तस्वीरों में आशीर्वाद देते हाथ की होती है। हथेली के मध्य में मैंने एक आँख बनाई थी जिससे निकलती प्रकाश की किरणे अंधे व्यक्ति पर पड़ रही थीं। मेरी कल्पना में हथेली में बनी आँख से निकल कर अंधे चेहरे पर पड़ती प्रकाश की किरणे दृष्टि (नेत्र) दान की द्योतक थीं। मेरे मित्रों ने मेरी कलाकृति की खूब प्रशंसा की थी। निश्चय ही मैं अपने प्रयास से संतुष्ट था। टाइम्स आई रिसर्च फाउंडेशन ने भी मेरी प्रविष्टि को स्वीकार कर लिया था। कुछ ही समय में मैं उस प्रतियोगिता को भूल सा गया था।
एक दिन, अचानक ही मेरी दृष्टि टाइम्स ऑफ़ इंडिया में भारतीय डाक-तार विभाग द्वारा नेत्र दान पर जारी किये गए डाक टिकिट की तस्वीर पर पड़ी। वह तस्वीर मेरी भेजी हुई प्रविष्टि से बहुत मिलती थी। पहली नज़र में तो मुझे वह मेरी ही भेजी हुई कलाकृति लगी। गौर से देखने पर एक छोटी-सी, परन्तु अत्यंत ही अर्थपूर्ण भिन्नता दिखाई दी जिसने जीवन के बारे में मेरे दृष्टिकोण को सदा के लिए बदल दिया।

डाक टिकिट के लिए चयनित एवं पुरस्कृत चित्र में एक की जगह दो हथेलियां प्रदर्शित की गयीं थीं। दोनों का रुख आसमान की तरफ था। हाथों की मुद्रा ऐसी थी मानो मंदिर में चढ़ावा दिया जा रहा हो। हथेलियों में एक आँख चित्रित थी जिसमें से निकल कर प्रकाश की किरणे अंधे चेहरे पर पड़ रही थीं––मेरे बनाए चित्र की तरह। अंतर केवल इतना था कि तस्वीर से एक भाव छलक रहा था जो मेरे बनाए चित्र से स्पष्ट रूप से नदारद था –– ‘अर्पण’ करने का भाव। उस चित्र में दाता-याचक का समीकरण नहीं था अपितु दृष्टि देने वाले की विनम्रता और दृष्टि पाने वाले की गरिमा छलक रही थी।
यद्यपि वह डाक टिकिट ‘नेत्र दान’ के लिये प्रेरणा देने के लिए था, उस दिन मैंने ‘दान’ और ‘अर्पण’ शब्दों के अर्थ के अंतर को भली-भांति जाना था; ‘दान’ शब्द में निहित अहंकार को समझा था और ‘अर्पण’ की भावना का अनुभव कर पाया था।
सोचता हूँ, क्या नाम बदलने से लोगों की सोच में बदलाव आ सकता है? क्या लोग दान की भावना को छोड़ अर्पण की भावना को अपना सकते हैं? नेत्रार्पण; रक्तार्पण; देहार्पण?
इस विषय पर इतना लिख कर मैं अपनी कलम को अवकाश दे चुका था। परन्तु मेरी प्रिय बहन की एक टिप्पणी ने मुझे कुछ और शब्द लिखने के लिए उत्साहित किया है। मेरा लेख पढ़कर मेरी बहन ने हास्य-पूर्ण तरीके से मेरा ध्यान “कन्यादान” और “कन्यार्पण” की ओर आकर्षित किया है और मेरी प्रतिक्रिया जाननी चाही है। मैं समझता हूँ कि आज के भारत में इन दोनों के लिए कोई स्थान नहीं है। इनके बारे में सोचना भी पाप है।
नोट: मेरे इस लेख का उद्देश्य केवल और केवल “दान” और “अर्पण” की भावनाओं में जो अंतर मैंने समझा है उसको अपने पाठकों से साझा करना है। इस में प्रदर्शित डाक टिकिट की जो छवियाँ हैं, वे प्रतीकात्मक हैं। वास्तविक डाक टिकिट और मेरे द्वारा भेजी प्रविष्टि इस लेख में दिखाए गए चित्रों से भिन्न थीं। आशा करता हूँ कि भारतीय डाक विभाग और टाइम्स आई रिसर्च फाउंडेशन, दोनों ही इस मामले को कोई तूल न देंगे।
Happy to follow you Sir …and more more happy after reading this …amazing 👌👌👌❤❤😊
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Thank you for your kind words of appreciation, Nimish. I feel honoured. 🙏
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अति सुन्दर। एक “उत्तम लेख” जो “दान” व “अर्पण” जैसे शब्दों के भावनात्मक भेद को इतनी सरलता से समझा गया । …….. कारण खोजने पर मुझे अपने विषयों के प्रति आपका “संपूर्ण समर्पण” स्पष्ट दृष्टिगोचर है। 👍👏👏👏
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🙏😊🙏
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अति सुंदर।धन्यवाद।
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🙏😊🙏
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अब टिप्पणी की spelling भैया
May b it is slip of finger😊
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Corrected.
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You are unique writer…. Keep writing… On new subjects with new ideas. Best wishes bro.
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🙏😊🙏
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Simplicity of style is his signature – the eyes are a soulful offering and not a soulless donation .it is about the subtle yet clear difference between sympathy and empathy too.Sans arrogance the introspection and learning strikes a familiar chord and touches me
Writing in his mother tongue he emphasises his home grown skills which sits rather well.
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Thanks Banjo. Honoured! 🙏
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As an after thought.you are kind to have ignored the clear plagiarism without credits given of the final design of the postage stamp.instead you graciously see a depth of vision in the new imagery.bravo !
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Thanks for that observation. I couldn’t find my own drawing nor could get the facsimile of the winning entry from the net. So drew them just to convey the point. 😊
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बहुत बढ़िया लगे रहो। लोग कन्या दान भी करते हैं😊😘
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कन्या: दान और अर्पण दोनो ही ग़लत हैं। 🙏🙏🙏
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Feeling proud to b ur sis. Feeling honored
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🙏😊🙏
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‘Arpan’…is an offering, while ‘Daan’ is a donation. That is the subtle difference between the two. An offering is generally related to a spiritual cause, while a donation is not….although religious institutions do have a donation box too…apart from a collection of offerings…!! The practice of giving an organ to a needy person is definitely a donation, as is ‘Kanyadaan’…because that poor soul needs a companion….whereas “Kanyaarpan” will grant a saintly status to the recipient!
In a lighter vein….”Donations” get you a tax benefit….”Offerings” save you from paying tax on ill-gotten wealth….!!
Great writing… and a great picture.
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Thank you, Sir. Missed you at the Air Cmde Jasjit Singh Memorial Lecture today.
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इस लेख पर मेरे परम मित्र प्रवीण कुमार गार्गव की विचारपूर्ण एवं सार्थक प्रतिक्रिया: “दान देना किसी की मदद करना है जिसे उस मदद की आवश्यकता है। अर्पण करना किसी को सम्मान पूर्वक कुछ भेंट करना या सौंपना है। जिसे अर्पण किया जा रहा है हो सकता है उसे उस वस्तु की आवश्यकता नहीं हो। अर्पण सक्षम व्यक्ति को भी किया जाता है। जैसे ईश्वर को हम दान नहीं देते, अर्पण करते हैं।
इस दृष्टि से देखें तो नेत्रदान शब्द तो सही है। परंतु हम अगर इस दान को देकर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं और जिसे दे रहें हैं उसे ईश्वर का अंश मानते हैं तो अर्पण शब्द भी सही है।”
🙏🙏
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