अनोखी देश-भक्ति

जून की निर्दयी गरमी थी। मैं टुंडला रेल्वे स्टेशन पर अपनी ट्रेन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। फ्रंटियर मेल दो घंटे देरी से चल रही थी; कोई नई बात नहीं थी। अपर क्लास वेटिंग रूम में कुर्सियों पर लोग बैठे थे; कोई स्थान रिक्त नहीं था। लम्बे सोफे पर एक श्रीमान अपना अधिपत्य जमाये हुए थे––बेसुध, और आसपास में होने वाली हरकतों से अनभिज्ञ, खर्राटे भर रहे थे। पहले मन में आया कि उन्हें उठाऊँ और नैतिकता और शिष्टाचार पर भाषण दूँ। परन्तु फिर तरस आया, सोचा, “नींद बड़ी चीज़ है। किसी के सपनों में विघ्न डालना ठीक नहीं।” मन मारकर प्लेटफार्म पर एकांत में एक खाली बेंच ढूंढकर मैंने डेरा डाला था।

बेचैन था, परंतु मेरी परेशानी का कारण ट्रेन का लेट होना नहीं था, अपितु मेरी एड़ी का दर्द था। एक हफ़्ते पहले तेज़ हवा में, आगरा में प्रशिक्षण स्काई-डाइविंग के दौरान टखने में मोच आई थी। दर्द असह्य तो नहीं था, परन्तु रह-रह कर चिड़चिड़ाहट हो रही थी। आयोडेक्स और क्रेप बैंडिज से कोई लाभ नहीं हो रहा था; दबने से  टीस हो उठती थी। और, उफ़ गर्मी, शरीर के हर रोम छिद्र से पसीना बह रहा था। दर्द और गर्मी से अपना ध्यान हटाने के लिए मैं डॉमिनीक लापीएर की बहुचर्चित पुस्तक, “सिटी ऑफ़ जॉय” में डूबने की कोशिश कर रहा था। एक मक्खी मुझ वायु-योद्धा के धैर्य को चुनौती दे रही थी; मेरी कोशिश को निरन्तर विफल कर रही थी। वॉकमैन पर मेरा पसंदीदा संगीत भी कानों के पर्दों पर हथौड़ों के प्रहार जैसा लग रहा था।

मेरा हाल बुरा था।

ऐसे में, वह कब हवा में तैरते पंख की तरह उतरा और मुझ से कुछ दूर आकर बैठ गया, पता ही नहीं चला। नज़र थोड़ी घूमी, तो मेरा ध्यान बग़ल में होती उसकी हलचल ने आकर्षित किया।

जैसा कि मुझे बाद में पता चला, उसकी उम्र मात्र सोलह वर्ष थी। परन्तु चेहरा देख कर वह छब्बीस वर्ष का लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कि असली उम्र और प्रतीत होने वाली उम्र के अंतर को उस ने कुछ ही महीनों में जी लिया था। उसका मांस-रहित शरीर एक कंकाल प्राय था। कमर में सुतली से बंधी, धूल में सनी उसकी ढीली-ढाली पतलून, और दो टूटे हुए बटन वाली कमीज पर लगे पैबंद उसकी आर्थिक स्थिति और निराश्रयता का ऐलान कर रहे थे। मेरी उड़ती दृष्टि उस पर रुकने की बिलकुल भी इच्छुक नहीं थी परन्तु उसकी धँसी हुई आँखों में एक चमक देख कर कुछ ठिठकी। एक तरफ उसकी स्पष्ट दुर्दशा और दूसरी ओर उसकी आँखों में छुपी ख़ुशी में एक अनोखा विरोधाभास था। आदतानुसार मैं व्यर्थ के असमंजस में पड़ गया था।

सलीम की संपत्ति

थोड़ी देर में उसने अपना लकड़ी का संदूक खोलकर एक छोटी सी जूता पालिश की दूकान सजा दी। फिर इशारे से मेरे जूते पालिश करने की अनुमति माँगने लगा। उसकी दुर्दशा पर तरस खाकर मैंने हाँमी भर दी, यद्यपि मेरे जूते साफ़ थे। मैं मन ही मन तय कर चुका था कि ‘उस गरीब’ को उसकी अपेक्षा से कुछ अधिक पैसे दूँगा।

सलीम नाम था उसका।

धीरे-धीरे और सफाई से उसने अपने सामने पालिश की डिबिया, रंगों की बोतलें, जूते की क्रीम, गंदे कपड़े और ब्रश आदि सजा दिए। फिर वह अपने काम में तल्लीन हो गया। एक मंजे हुए कलाकार की तरह, वह रुक रुक कर, मेरे जूतों के केनवास पर अपने ब्रश के असर को निहार रहा था।

मैंने अपनी किताब अलग रख दी क्योंकि अब मुझे सलीम के चेहरे पर छपी दुनिया की श्रेष्ठ किताबों की एक लाइब्रेरी जो मिल गयी थी। मेरी दिलचस्पी को देख कर वह चहचहाया, “सर, मुझे यकीन है कि आप एक फौजी हैं।” और फिर, मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना उसने बोलना जारी रखा, “केवल फौजियों के कपड़े और उनके जूते इतने साफ़ होते हैं।” मैंने अनुमान लगाया कि वह मुझ से एक अच्छी टिप पाने के लिए भूमिका बना रहा था। मुझे उस गरीब का व्यवहार पूरी तरह अपेक्षित लगा।

“सलीम, तुम्हारी सेहत को क्या हुआ? तुम इतने कमजोर लग रहे हो।” मैंने विषय बदलने का प्रयास किया।

“सर, हाल ही में लंबी बीमारी से उठा हूँ; तपेदिक से ग्रस्त था। पिछले कुछ दिनों में मैं नरक से गुजरा हूँ। लेकिन, भगवान की कृपा है, बीमारी के दौरान, मैंने केवल मांसपेशियों को खोया है, हड्डियां अभी भी सलामत हैं। कुछ ही दिनों में मांस आ जायेगा और मैं फिर से पूरी तरह से ठीक हो जाऊँगा।”

अनजाने में, उस लड़के ने एक वायु-योद्धा की पीड़ा सहने की क्षमता को चुनौती दे डाली थी। अचानक ही मेरे टखने का दर्द गायब हो गया।

“बहुत गरमी है।” मैंने पुनः विषय बदलने की कोशिश की।

“लेकिन सर, हम गरीब, बिना छत के रहने वालों के लिए यह गर्मी बारिश या सर्दी से बेहतर है …” उसके तर्क में दम था। अब मैं प्रचण्ड गर्मी सहन कर पा रहा था। इसके पश्चात वह बोलता चला गया और मैं मंत्रमुग्ध होकर सुनता रहा।

मैंने ही उसे उकसाया था।

बातों-बातों में कब आधा घंटा बीत गया, पता नहीं चला। सलीम ने पालिश कर के जूतों को मेरे समक्ष निरिक्षण के लिए रख दिया और मेरे मुँह की ओर देखने लगा। मैंने मुस्कुराते हुए चमकते हुए जूतों के जोड़े को स्वीकार किया। मेरा मन अब भी अपनी ही बनाई हुई पगडण्डी पर धीरे-धीरे घिसट रहा था, “गरीब, बेचारा, टिप… “

मैंने अपने बटुए में से एक 50 रुपये का नोट निकाला और सलीम की गंदी, पालिश से भरी हथेली पर रखते हुए कहा, बाकी पैसे रख लो।” मैंने सोचा कि मैंने सलीम पर बड़ा एहसान कर दिया था, वह बच्चा अधिक पैसे पाकर खुश हो रहा होगा।

मुझे तनिक एहसास नहीं था कि मेरी सोच कितनी गलत थी…

शायद भरी दोपहर में, खुले नीले आसमान में बिजली का चमकना मुझे उतना आश्चर्यचकित नहीं कर पाता जितना कि उसके जवाब ने किया, “सर,” उसने कहा, “कृपया मुझे पैसे न दें। अगर मैं फौजियों से एक पैसा भी स्वीकार करूँगा, तो मैं नरक में जाऊंगा। जो कारगिल और सियाचिन में हमारे लिए अपने जीवन का बलिदान देते हैं उनसे मैं पैसे कैसे ले सकता हूँ? मुझे नरक में नहीं जाना है।” उसने हाथ जोड़ लिए। मैं पानी-पानी हो चुका था।

बड़े आग्रह के बावजूद सलीम ने पारिश्रमिक स्वीकार नहीं किया। उऋण होने के अंतिम प्रयास के तहत मैंने अपना एक अतिप्रिय बिल्ला (बैज)––जो मुझे एक सफल सैन्य अभियान के बाद एक मित्र सेना के अधिकारी ने एक स्मारिका के रूप में दिया था––उसकी कमीज की जेब पर लगा दिया। उस नन्हे देश भक्त ने मुस्कुराते हुए अटेंशन में खड़े होकर, एक फौजी सलूट कर के, मेरे उस आभार को स्वीकार कर के मुझे अनुग्रहित किया।

जाने से पहले सलीम एक प्रश्न छोड़ गया था जिसका जवाब खोजते-खोजते मेरा जीवन गुजर गया है: “फ़ौज के प्रति उसकी अपेक्षाओं पर मैं कैसे खरा उतर सकूँगा?”

(नोट: तथ्यों पर आधारित यह कहानी मेरी अंग्रेजी में प्रकाशित कहानी “The Shoeshine Boy” का हिंदी रूपांतर है।  हिंदी में अनुवाद के लिए मैं अपनी प्यारी बहन, प्रोफेसर रीता जैन का आभारी हूँ। )

5 thoughts on “अनोखी देश-भक्ति

  1. Thank you, Ashok ,I am really proud of you and I’m flattered to be in contact with you. Love and regards,
    Mohan

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